क्या भारत में विवाह एक असफल संस्था बनते जा रहा है ?

Marriage losing its value
🖊 नमन शाह,

मनुस्मृति में संस्कृत का एक श्लोक है - "सन्तुष्टो भार्यया भर्ता भर्त्रा भार्या तथैव च यस्मिन्नेव नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् " - अर्थात् जिस परिवार में पति-पत्नी खुश रहते हैं, वहां हमेशा सुख-समृद्धि बनी रहती है|

भारत में विवाह को हमेशा से एक पवित्र और स्थायी बंधन माना गया है, जो न केवल दो व्यक्तियों को जोड़ता है, बल्कि दो परिवारों और संस्कृतियों को भी एक साथ लाता है। परंतु हाल के वर्षों में इस सामाजिक संस्था के स्वरूप में तेजी से बदलाव देखने को मिल रहे हैं। आधुनिक जीवनशैली, बदलते सामाजिक मूल्य, और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बढ़ती चाह ने विवाह को एक अनुबंध या विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया है। लोग सात जन्मों के बंधन को सात दिन भी निभाने से कतरा रहें है|
उदाहरण के तौर पर, हाल ही में जयपुर और मेरठ में हुई घटनाओं ने विवाह की गंभीर चुनौतियों को उजागर किया है। इन मामलों में पति-पत्नी के बीच विश्वासघात और हिंसा ने यह सवाल खड़ा कर दिया कि क्या विवाह अब भी वह स्थायी और सुरक्षित बंधन है, जैसा इसे पारंपरिक रूप से माना जाता था। हमारें बालीवूड सेलिब्रिटीज हो या क्रिकेटर कोई इससे अछूता नहीं है|

भारत में विवाह का बदलता स्वरूप
भारत में विवाह अब केवल धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं पर आधारित पवित्र बंधन नहीं रह गया है। इसके स्वरूप में कई बदलाव आए हैं:

-> पवित्रता की कमी एवं बोझ : पहले विवाह जीवनभर की प्रतिबद्धता का प्रतीक था, लेकिन अब इसे एक अनुबंध के रूप में देखा जाने लगा है। युवा पीढ़ी इसे जिम्मेदारी से अधिक एक विकल्प मानने लगी है। आजकल लोग करियर एवं वैवाहिक जीवन में फर्क समझ नहीं पाते इसे भी एक प्रोफेशनल अनुबंध की तरह देखते है एवं बोझ समझना प्रारंभ कर देते है, यह प्रायः नुएक्लिअर परिवार में देखा जा रहा है जहाँ उन्हें कोई समझाने वाला नहीं होता |

-> तलाक का बढ़ता चलन : शहरी क्षेत्रों में तलाक की दरें तेजी से बढ़ रही हैं। वित्तीय स्वतंत्रता और बदलती लैंगिक भूमिकाओं ने तलाक को अधिक स्वीकार्य बना दिया है। हालांकि तलाक कई बार असंगत साथी या घरेलू हिंसा से बचने का जरिया होता है, लेकिन कुछ मामलों में इसे वित्तीय लाभ के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है।

-> धैर्यता की कमी : हमारे बुजुर्ग एक वाक्य हमेशा कहते थे - थोडा धीरज रखो बेटा लेकिन वर्तमान में लोगो को सभी चीजें 2 मिनट मैगी के जैसे फटाफट चाहिए जबकि विवाह एक ऐसा बंधन है जो की जितना पुराना होगा उतना ही पक्का और मजबूत होता चला जायगा |

-> लिव-इन रिलेशनशिप: एक नया विकल्प विवाह के बदलते स्वरूप के साथ-साथ लिव-इन रिलेशनशिप का चलन भी बढ़ रहा है।

कानूनी मान्यता : भारत में लिव-इन रिलेशनशिप को सुप्रीम कोर्ट द्वारा कानूनी मान्यता दी गई है। एस. खुशबू बनाम कन्नियाम्मल (2010) मामले में अदालत ने कहा कि वयस्कों को अपने साथी चुनने की स्वतंत्रता है।

स्वतंत्रता की इच्छा : कई युवा विवाह से जुड़ी जिम्मेदारियों और संभावित तनाव से बचने के लिए लिव-इन रिलेशनशिप को प्राथमिकता देते हैं। यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता और स्वायत्तता की व्यापक इच्छा को दर्शाता है।

हमारें समाज पर प्रभाव
विवाह की असफलता से केवल दो व्यक्ति ही नहीं बल्कि उनके इर्द-गिर्द पूरा परिवार एवं समाज प्रभावित होता है| इससे लोगो में तनाव, चिंता, अवसाद और यहां तक ​​कि शारीरिक स्वास्थ्य समस्याएं भी हो सकती हैं, साथ ही बच्चों और परिवार की गतिशीलता पर भी असर पड़ सकता है। हाल के समय में विवाह और पारिवारिक संबंधों में तनाव और हिंसा के कई उदाहरण सामने आए हैं। ये घटनाएँ न केवल विवाह के प्रति लोगों की सोच को प्रभावित करती हैं, बल्कि समाज पर भी गहरा प्रभाव डालती हैं।

जयपुर का मामला - जयपुर में एक महिला ने अपने प्रेमी के साथ मिलकर अपने पति की हत्या कर दी। यह घटना विवाह में विश्वासघात और हिंसा की भयावह तस्वीर प्रस्तुत करती है। धन्नालाल सैनी नामक व्यक्ति को उसकी पत्नी गोपाली देवी ने अपने प्रेमी दीनदयाल कुशवाहा के साथ मिलकर मार दिया। हत्या के बाद शव को जलाने का प्रयास किया गया।

मेरठ का मामला - मेरठ में भी एक पत्नी ने अपने पति की हत्या कर दी। इस मामले में पत्नी मुस्कान ने अपने प्रेमी साहिल शुक्ला के साथ मिलकर पति को मार डाला और शव को छिपाने का प्रयास किया।

ये और ऐसी अनेक घटनाएँ समाज में विवाह के प्रति बढ़ती असहमति और तनावपूर्ण रिश्तों की ओर इशारा करती हैं।

भविष्य की दृष्टि

जैसे-जैसे असामाजिक दृष्टिकोण विकसित हो रहे हैं, आने वाले समय में विवाह का महत्व कम हो सकता है। व्यक्तिगत खुशी और स्वतंत्रता को पारंपरिक जिम्मेदारियों पर प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति यह संकेत देती है कि विवाह भारतीय समाज में अपनी केंद्रीय भूमिका खो सकता है। लिव-इन रिलेशनशिप जैसे वैकल्पिक संबंधों का बढ़ता चलन यह दर्शाता है कि आधुनिक समाज साझेदारी को कैसे देख रहा है।

निष्कर्ष

भारत में विवाह अब वह स्थायी और सुरक्षित संस्था नहीं रह गई है, जैसा इसे पारंपरिक रूप से देखा जाता था। बदलते सामाजिक मूल्य, व्यक्तिगत स्वतंत्रता की चाह, और हिंसात्मक घटनाओं ने इस संस्थान पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या विवाह अपनी प्रासंगिकता बनाए रख पाएगा या फिर वैकल्पिक संबंधों की ओर समाज का झुकाव बढ़ेगा।

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Nikhil Vakharia

Nikhil Vakharia

मुख्य संपादक

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